अनजान मुसाफिर

घनी रात हो गई थी परन्तु रमेश चला जा रहा था उसके दिमाग में शायद कुछ ऐसा था जो कि उसको बहुत परेशान कर रहा था , इसी उधेड़बुन में वो सोचते सोचते धीरे धीरे सुनसान सड़क पर आगे बढ़ा जा रहा था , ना उसको ये पता था कि वो कहां जा रहा है बस वो सुनसान सड़क पर अनजान मुसाफिर की तरह चले जा रहा था ।  घर की जिम्मदारी और बेरोजगारी की चिंता में दिन पर दिन रमेश अंदर ही अंदर घुट रहा था । रमेश इतिहास विषय में स्नातक था परंतु उसकी ये डिग्री भी उसके किसी काम नहीं आ रही थी । बड़े उत्साह के साथ उसने दिल्ली विश्वविद्यालय के रेगुलर कॉलेज में दाखिला लिया था परन्तु पास होने के बाद उसका उत्साह बिल्कुल ख़तम हो गया था । पिताजी ने बड़ी मुश्किल के साथ उसको पढ़ाई करवाई थी कि बेटा पास होकर अच्छी नौकरी करेगा । रमेश की पढ़ाई के बीच में ही रमेश के पिताजी का दुर्घटनग्रस्त हो गए जिसके कारण उनका शरीर काफी ज्यादा कमजोर हो गया । अब रमेश को पिताजी की भी चिंता लगी रहती थी और वो भी यही चाहता था कि जल्दी से नौकरी लगते ही पिताजी को काम नहीं करने देगा पंरतु किस्मत भी उसका साथ नहीं दे रही थी ।
                   आज ऐसा कुछ हुआ जिसने रमेश को बिल्कुल अंदर तक झकझोर के रख दिया , प्रतिदिन की तरह नौकरी की तलाश करके घर पहुंचा पंरतु घर के बाहर कुछ अजीब सा शोर उसे सुनाई पड़ा रमेश वहीं थोड़ा छुप कर सुनने लगा कि कैसा शोर है , दरअसल ये शोर रमेश के पिताजी और राशन की दुकान वाले की बीच हो रही बहस का था पिछले 2 महीनों से पैसे की तंगी के कारण राशन उधार आ रहा था परन्तु इन सबके बावजूद पिताजी रमेश को कुछ नहीं बताते थे ऐसा की वो परेशान हो परंतु आज राशन वाला काफी कुछ गलत भाषा का प्रयोग कर गया जिसको रमेश के पिताजी चुपचाप सुन गए । पहले ऐसा नहीं होता था रमेश के पिताजी किसी से एक पैसा उधार नहीं लेते थे इसलिए किसी की इतना सुनते नहीं थे परन्तु  आज मजबूरी में ऐसा करना पड़ा । पिताजी का झुका हुआ सर रमेश को अंदर ही अंदर बहुत झकझोर रहा था ।
                  इस वजह से वो छुप कर सब सुनकर घर के अंदर जाने की हिम्मत ना कर सका और चुपचाप वहां से सड़क की ओर निकल गया  क्योंकि आज भी वो खाली हाथ के सिवा उसको कुछ नसीब ना हुआ और आज फिर पिताजी आशापूर्ण नजरें से आज फिर एक ही सवाल  करेगी ' बेटा नौकरी मिली क्या '   

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