मेरी पुकार
मेरा प्यारा देश जल रहा संघर्षों की ज्वाला में,
नित-नूतन महफ़िल सजती है सत्ता की मधुशाला में.
कोई फर्क नहीं पड़ता हलधर का कमल सा पंजा है,
भोली जनता की गर्दन पर सबने कसा सिकंजा है.
मंदिर, मस्जिद के मुद्दों पर जनता को उकसाते है,
अपने स्वार्थ की खातिर निर्दोषों को कटवाते है.
विश्वासों की लाश बिछाकर कफ़न बेचते नारों का,
फिर भी लोकत्रंत में अभिनन्दन होता हत्यारों का.
उधर मेरा महराष्ट्र धधकता भाषावाद की लपटों में,
उजड़ चुकी केसर की क्यारी बम-बारूदी झटकों में.
देवदार के ऊँचे-ऊँचे वृक्षों का सिर झुका हुआ,
शालीमार शोक में डूबा भवन हृदय ले पड़ा हुआ.
डोल रहा डल झील पर जैसे काले प्रेतों का साया,
फूलों की घाटी में मौत का सन्नाटा कैसा छाया. यूं
लगता है सुर्ख सेब सब हथगोलों में बदल गए, जादू से
कुछ भोले चेहरे शैतानों में बदल गए. मौत बेचने वाले
जालिम फेरी देते गली-गली, निर्ममता से कुचल डालते
फूल हो या अधखिली कली. भटक गया यौवन
जोशीला दुश्मन के षडयंत्रो से , सर्वनाश की ओर बढ़
रहा सम्मोहित विषमंत्रों से. कोई इस भटके यौवन को
सही मार्ग पर तो लाये, कोई राष्ट्रभक्त जननेता सीना
ठोककर डट जाये. लेकिन इन जननेताओं की
राष्ट्रभक्ति क्या अद्धभूत है, अधिवेशन, भाषण,
उदघाट्न विजातियाँ जारी होती है, भीषण हत्याकांडों
पर प्रतिक्रिया भारी होती है. मंत्रालय से बंगलो तक के
फ़ोन टनटना उठते है, कड़ी सुरक्षा में नेता सरकारी
दौरे करते है. आनन-फानन में लाशों की कीमत तय
की जाती है, जख्मों की संख्या गिनकर कुछ राहत भी
दी जाती है. पग-पग पर तैयार खड़े है,मतभेदों के
लाक्षागृह, जाति, धर्म, भाषा, संस्कृति के जाने कितने
पूर्वाग्रह. अब तो जनता को अपना जनार्दन रूप
दिखाना है, समस्याओं के चक्रव्यूह को मिल-जुलकर सुलझाना है.
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